3.3.10

तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है: डॉ.दयाराम आलोक

                     

           




मैं खोज रहा था निरवलंब अवलंब तुम्हारा निज मन में।
मैं देख रहा था निर्निमेष प्रतिबिंब तुम्हारा निज मन में |
मैं व्योम तले उद्भ्रांत विहग सा भ्रमित भटकता निरुद्देश्य,
मन विकल अंधेरा घोर भोर की किरण छिपी थी दूर देश।

तुमने मेरे धूमिल लक्ष्य को स्पष्ट और निर्दिष्ट किया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

बेकल जीवन में घिरी अमा अद्रश्य चन्द्र दिखती न शमा,
आलोक हुआ था लोप कोप कर रहा कुहासा सघन धुआं,
मेरे मन की आकांक्षा को था घोर तिमिर ने घेर लिया,
मानस के झंझावातों ने था क्षीण कर दिया आस दिया।

मेरी अनब्याही चाहत को तुमने सहज संवार दिया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं दुर्बल द्रुम का पीत पत्र था उजड गया जिसका सुरंग
था भव सागर का वह हिस्सा उठती न कभी जिसमें तरंग,
था गर्मी की सरिता समान मैं जल विहीन औ’ क्षीण प्राण,
मैं कुसुम कुंज का वह प्रसून भंवरा कतराता मृतक जान।

तुमने पतझडमय प्राणों का वासंती शृंगार किया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं रूप मेघ का चातक था पर बूंद स्नेह का मिला नहीं,
था शुष्क प्राण निर्झर जिसका परिचय सावन से हुआ नहीं।
मैं वह बादल था जो जलमय होकर भी जल का प्यासा था,
मन उदासीन,अवसन्न,विकल सारा जग लगता झांसा था।

मेरे बैरागी जीवन को तुमने स्वर संगीत दिया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

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